सुप्रभात
भोर की हलचल उनींदी चित्त को भाति रही
विगत की स्म्रति मधुरिमा खीचकर लाती रही
अरुणोदय की लालिमा का दृश्य अद्भुत दिख रहा
चिड़ियों के कलरव की प्रतिध्वनि अनवरत आती रही
इन्द्र धनुषी छटा प्रस्तुत कर गया नभ में प्रभात
नवदंपति को दे निराशा निशा भी जाती रही
भानुरथ पथ पर चला तो कुमुदिनी भी खिल गई
आहट मन को प्रिय मिलन की रह रह सहलाती रही
छिटकते से ऑस के कण अश्रुवत झड़ने लगे
कक्ष शयनित कामिनी तब अनुचित कहलाती रही
Subscribe to:
Post Comments (Atom)
No comments:
Post a Comment