आशामाँ से भी कभी पूंछा
किसी ने
साक्षी है जो हर व्यथा हर
दर्द का
अनगिनत जजबात और प्रतिशोध
का
थरथराती रात मौसम सर्द का
पर कभी तोडा नहीं है मौन
जिसने
ज्यों निभाना धर्म आता मर्द
का
झंझाबातों को सहा नित नये
जिसने
सहा है प्रतिघात उठती गर्द
का
अरुणोदय का दृश्य भी देखा
उसी ने
चढ़ गया क्यों रंग पीला
हर्द का
आश्रय देता रहा है जो सभी
को
रहा भरता यथा पेटा फर्द
का
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