Monday, March 21, 2011

सुप्रभात

सुप्रभात
भोर की हलचल उनींदी चित्त को भाति रही
विगत की स्म्रति मधुरिमा खीचकर लाती रही

अरुणोदय की लालिमा का दृश्य अद्भुत दिख रहा
चिड़ियों के कलरव की प्रतिध्वनि अनवरत आती रही

इन्द्र धनुषी छटा प्रस्तुत कर गया नभ में प्रभात
नवदंपति को दे निराशा निशा भी जाती रही

भानुरथ पथ पर चला तो कुमुदिनी भी खिल गई
आहट मन को प्रिय मिलन की रह रह सहलाती रही

छिटकते से ऑस के कण अश्रुवत झड़ने लगे
कक्ष शयनित कामिनी तब अनुचित कहलाती रही

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