Monday, July 20, 2015

         कुत्ते और आदमी

प्रातः भ्रमण पर निकले कवि को दिखे
सड़क  पर घूमते चार कुत्ते
साथ साथ चलते इतराते इठलाते
भाई चारे का सबक सा सिखलाते
उसे लगा जैसे वे दे रहे हों चुनौती
हमारे सभ्य समाज को
हमारे वर्तमान को हमारे आज को

जैसे कह रहे हों
हम कुत्तों को तुम मनुष्यों ने बहुत बदनाम किया है
अपनी कमी छुपाने को क्या क्या नाम नहीं दिया है
लड़ते खुद हो और कहते हो
कुत्तों की तरह लड़ते हो
हमें बदनाम करने के नये नये जुमले गढ़ते हो

राजनीति में व्यापार में , समाज में परिवार में
मेलों में , रेलों में यहाँ तक कि जेलों में 
तुम कहाँ नहीं लड़ते हो
पर अपना दोष दूसरों पर मढ़ते हो

अरे तुम तो संसद में भी हमारी तरह लड़ते हो
कुर्सी माइक पेपरवेट फेंक फेंक कर झगड़ते हो
भाई से भाई , सास से बहु , ससुर से जमाई
मालिक से नौकर , निर्लज्ज होकर
बताओ कहाँ नहीं भिड़ते हो
हमें झगड़ालू बताते हो  हमसे छिड़ते हो
अब  तो लगता है हमें यू टर्न लेना पड़ेगा
“ आदमियों की तरह लड़ते हो “ यह जुमला
अपने भाई कुत्तों से कहना पड़ेगा

तुम तो हमारी प्राकृतिक क्रियाओं को भी गलत नाम देते हो
“ कुत्ते हो टांग उठाकर मूतते हो “ यह कहते हो
तो तुम भी तो दीवारों पर थूकते हो
सीडियां हों या फर्श पीक मरने से नहीं चूकते हो
सडक का किनारा हो या दीवारों का पिछवाडा
बस अड्डा रेलवे स्टेसन सबका कर देते हो कबाड़ा

अरे तुमने तो संतत्व को भी कर दिया है लांछित
कई आशाराम रामपाल कोर्ट में हैं वांछित
बात आत्मा परमात्मा की करते हो
पर आश्रमों में हद दर्जे की ऐयाशी करते हो

तुम्हें समझाने के लिए शर्म का ताज पहनना पड़ता है
आमिर से लेकर मोदी तक को सामने आना पड़ता है
अरे तुम कब के सफाई पसंद हो
अंतर केवल यह है कि
हम खुले में हैं और तुम कमरे में बंद हो 
 


 



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